Sunday, March 9, 2008

विकास की कीमत

आज जबकि सारा जोर विकास पर दिया जा रहा है और ये माना जा रहा है की यदि देश की इकोनोमी का विकास होगा तो देश की जनता का भी विकास होगा। लेकिन विकास का जो दूसरा पहलू है वह है विस्थापन। विकास का विरोध करने वाले भी ये मानते है की विकास के लिए विस्थापन जरूरी है। लेकिन विस्थापन हमेशा गरीब ,पिछड़े और कमजोर लोगो का ही क्यों होता है? आख़िर क्यों ऐसे लोग ही विकास की कीमत चुकाते है जिन्हें इससे कुछ हासिल नही होता है उल्टे वो और हासिये पर चले जाते है। अगर उन्हें कुछ मिलता है तो वह अपनी जगह से हटने की पीड़ा। दरअसल भारत सहित दुनिया के कुछ देशो मे विकास की जो प्रक्रिया अपनाई जा रही है , वह दमन की नीति पर आधारित है। इसमे कुछ ख़ास लोगो को फायदा पहुचाने की कोशिश होती है। अगर विकास जनता के लिए किया जाना है तो उसमे जनता की भागीदारी होनी चाहिए । विकास जनता के लिए होना चाहिए न की जनता की कीमत पर.

राज की गुंडागर्दी

आज महाराष्ट्र मे राज ठाकरे जो कर रहे है वह सिर्फ़ गन्दी राजनीति है। अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए लोगों को आपस मे लड़ाने का काम ऐसे लोग ही करते है। समझ मे नही आता की जब विदर्भ मे इतने किसान आत्महत्या कर रहे थे , उस वक्त ये कहा थे? लगता है की इनको देश के संविधान की जानकारी नही है जो इस देश के नागरिको को को देश के अंदर कही भी रहने ,कोई भी रोजगार करने और कही भी निवास करने की आजादी देता है।अपने इस तरह के कार्यो से वह न सिर्फ़ देश के संविधान को चुनौती दे रहे है बल्कि गृहयुद्ध उत्त्पन्न करने की कोशिश कर रहे है। आख़िर कब तक लोगों को आपस मे लड़ाकर राजनीति का गन्दा खेल खेला जाता रहेगा?
आज हमे किसी वर्ग की अलग पहचान तय करने से पहले एक राष्ट्र की पहचान को तय करना होगा। समझ नही आता की धर्म ,जाति और प्रांत के आधार पर अलग -अलग पहचानो की जरुरत ही क्यो पड़ी। हिन्दी है हम,वतन है हिन्दोस्तान हमारा , काफ़ी नही था?

Saturday, March 1, 2008

गैर जिम्मेदार जन प्रतिनिधि

आज हमारे जन प्रतिनिधि क्या कर रहे है ये बात किसी से छुपी नही है। अगर कुछ पीछे की घटनाओ को याद करे तो हम पाएंगे की चाहे वो संसद हो या राज्यों की विधानसभाये ,कमोबेश हर सदन मे ऐसी घटनाएँ घट चुकी है जिनसे सदन की गरिमा का हनन हुआ है। क्या हमारे जनप्रतिनिधि ये नही जानते की हमारा देश किन समस्याओं से गुजर रहा है । अगर सिर्फ़ सांसदों की बात करे तो पाँच वर्ष मे इनके ऊपर भारत सरकार का लगभग ९०० करोर रूपया खर्च होता है। अगर संसद की बात करे तो २६,००० रूपया प्रति मिनट का खर्च आता है संसद के चलने मे ,लेकिन हमारे देश के सम्मानित जनप्रतिनिधियों को इससे कोई फर्क नही पड़ता है । जिस देश मे इतनी समस्याएँ हो वहा पर सदन के कार्यों को बाधित करना आख़िर कौन सी समझदारी है। जाहिर है उनके ऐसे कार्यो से जरूरी मुद्दों पर चर्चा नही हो पाती है और लोकहित के कार्य प्रभावित होते है। लेकिन जब इनको अपना वेतन बढ़वाना होता है तो ये सारे लोग एकमत नजर आते है।
इसके लिए राजनीतिक दल भी कम दोषी नही है । आज उनके अन्दर लोकतांत्रिक मूल्यों की कमी होती जा रही है। हर दल की अपनी एक अलग विचारधारा होती है चाहे वो नीतियों को लेकर हो या कार्यक्रमों को लेकिन फिर भी उनमे आपस मे संवाद होता है जिसके आधार पर सहमति या असहमति बनती है। जबकि वर्तमान मे उनके अन्दर संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो रही है और सदस्यों के अंदर सुनने का धैर्य समाप्त हो रहा है जो की अच्छा लक्षण नही है।